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डॉ- भीमराव आंबेडकर जी | स्कूल में दाखिला : जूतों की जगह बैठते थे | डॉ- भीमराव आंबेडकर जी का बच्चपन |

स्कूल में दाखिला : जूतों की जगह बैठते थे-

भीमराव जब 6 वर्ष के हुए तो मां भीमाबाई रामजी राव के पीछे पड़ गई, भीम अब बड़ा हो गया है. उसका दाखिला क्यों नहीं करवाते? 

राम जी कुछ ना कुछ बहाना बनाकर टाल देते, कभी कहते बात की है, कभी कहते हो जाएगा, थोड़ा सब्र करो.

उस दिन जब भीमाबाई ने उन्हें टोका तो वे बिखर गए, कहाँ कराउं इसका दाखिला? कैसे कराऊं? तुम्हें क्या पता, मैं कहां- कहां नहीं गया हूं. पूरे 8 दिन की छुट्टी ले चुका हूं अब तक इस लड़के को दाखिला कराने के चक्कर में, परंतु कोई राजी नहीं होता, अछूत जो है.

हां, स्कूल में ऊंची जाति के बच्चे पढ़ते हैं कहते हैं हमारा बच्चा उनके साथ नहीं बैठ सकता. मैं पूछता हूं, जब साथ ही नहीं बैठ सकता तो पढे़गा कैसे? भीमाबाई शांत रहें आगे बढ़कर उन्होंने पीछे से पति के कंधों पर अपने दोनों हाथ रख दिया और बोली आपका दुख में समझती हूँ. पता नहीं क्यों, इतना कह गई सूबेदार की पत्नी होने का गुरुर आ जाता है तो भूल जाती हूँ कि हम अछूत हैं.

अपने आंसू पीने के बाद रामजी राव ने पत्नी की ओर मुंह फेरा और उसके आंसुओं को अपनी दोनों हथेलियों मैं समेटते हुए बोले बड़ी मुश्किल से एक हेड मास्टर ने हां की है, पर उसकी एक शर्त है. शर्त ? कहते हुए भीमाबाई ने पति की आंखों में देखना चाहा रामजी राव ने आंखें झुकाते हुए कहा, कहता है आपके लड़के को दाखिल तो कर लूंगा, परंतु उसे बड़ी जाति के बच्चों के साथ नहीं बैठा सकता. उसे अपनी टाट पट्टी साथ लानी पड़ेगी और कक्षा की दहलीज पर जहां बच्चे अपने जूते उतारते हैं, वहां बैठकर पढ़ना पडे़गा. " नहीं भीमाबाई ने अपना माथा पीटा, " भगवान इतना अन्याय नहीं हो सकता.

उसी समय बीमराव बाहर निकल आए. वे माता-पिता के बीच हुई बातचीत सुन चुके थे. उनकी आंखों में दृढ़ निश्चय की चमक थी. भीमराव जी बोले मेरा दाखिला करवा दो. मैं जूतों की जगह बैठ कर पढ़ लूंगा.

फूल से कोमल बच्चे के मुंह से शब्द निकले तो पिता राम जी राव उनमें छिपी विवशता पर रो पड़े और अपने आंसुओं को छुपाने के लिए वहां से हट गए. मां भीमाबाई ने बेटे की आंखों के भाव पढ़े और उसे सीने से लगाकर सामने दीवार की तरफ देखने लगी. हां बेटा, कल से तू स्कूल जाएगा. जूतों की जगह ही सही, तू पढ़ेगा.

जब वे यह शब्द धीमी आवाज में कह रही थी तो उनकी आंखों में आंसुओं की बरसात हो रही थी. उन्होंने दोनों हाथों से दबाकर भीमराव को चिपटा रखा था. वे नहीं चाहती थी कि नन्हा भीम उनके आंसू देखे.

अगले दिन भीमराव का दाखिला हो गया. अपने घर से पुरानी टाट पट्टी लेकर भी अपने पिता के साथ स्कूल गए और जूतों को एक और हटाकर टाट पट्टी बिछाकर दहलीज पर बैठ गए. भीमराव ने देखा कि जब वे जूतों को हटाकर अपने बैठने के लिए जगह बना रहे थे तो कुर्सी पर बैठे आचार्य और सामने बेंचो पर बैठे छात्र उन्हें ऐसे देख रहे थे मानो सोच रहे हो, इसके छूने से कहीं हमारे जूते तो अपवित्र नहीं हो गए. 

भीमराव की पढ़ाई शुरू हो गई. रोजाना अपनी टाट पट्टी साथ लाना, उसे बिछाकर जूतों की जगह बैठना, आधी छुट्टी में सबसे अलग बैठकर दूसरी ओर मुंह करके अपना खाना खत्म करना और इस बात का पूरा ध्यान रखना कि स्कूल का कोई विद्यार्थी या किसी की कोई चीज भूल से भी छू ना जाए.

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