माँ बीमार पड़ी, इलाज करने कोई वैघ नहीं आया-
भीमराव पढ़ने में बहुत तेज थे. घर से स्कूल दूर था. सुबह सवेरे घर से निकलते और शाम को लौटते थे. खूब मन लगाकर पढ़ते थे. पहली कक्षा से वे पांचवी में आ गए. पूरे स्कूल में उन्होंने नाम कमा लिया. पिता जब उनके स्कूल जाते तो हेडमास्टर भीमराव की बड़ी तारीफ करते. पिता को बहुत अच्छा लगता.घर लौटकर वे भीम की मां को बताते तो भीमाबाई की आंखों में खुशी के आंसू आ जाते. ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कहती, "किसी ने सच ही कहा है, दाता! तेरे घर देर तो है, पर अंधेर नहीं.
भीमराव के भविष्य के बारे में सुनहरे सपने देखते-देखते भीमाबाई एक दिन बीमार पड़ गई. जब वह बीमार हुई तो रामजी राव चिंतित हो उठे. उन के बल पर तो पूरी गृहस्थी चल रही थी.
उन्होंने बड़ी देखभाल की, बहुत भागदौड़ की परंतु सब बेकार गई. उन्हें ऐसे वैघ की जरूरत थी, जो उनके रोग को समझ सके और उन्हें अच्छी दवा देकर रोग के चंगुल से निकाल सके परंतु उनके घर आने के लिए कोई वैध तैयार नहीं हुआ सभी अच्छे वैध ऊंची जाति के थे. एक महार के घर भला वे कैसे आ सकते थे. उनका तो धर्म भ्रष्ट हो जाता.
वैघ अपना धर्म बचाते रहे और सही दवा के अभाव (कमी) में भीमाबाई का जीवन चला गया. वे मृत्यु की गोद में हमेशा हमेशा के लिए सो गई.
माँ की मृत्यु पर भीमराव बहुत रोए. भीमराव भूखे के बहुत कच्चे थे. माँ इस बात का बहुत ख्याल रखती थी कि उनका बेटा भूखा ना रहे. वही माँ जब अपने बच्चों को रोता - बिलखता छोड़ कर चली गई तो भीमराव ने कई दिन तक रोटी को हाथ नहीं लगाया.
पिता ने बहुत समझाया, "बेटा तुम ऐसे ही रोते रहोगे तो तुम्हारी माँ के सपनों का क्या होगा? तुम नहीं जानते, तुम्हारी माँ की आंखों में तुम्हें बड़ा आदमी बनाने के कितने सपने थे. बेटा उठो खाना खाओ और पढ़ाई में लग जाओ वे सपने तुम्हें पूरे करने हैं.
भीमराव ने पिता के चेहरे की तरफ देखा और रो पड़े. पिता ने पुत्र को गले से लगा लिया. अगले दिन से भीमराव नियमित स्कूल जाने लगे.
माँ की आंखों के सपने अब उनके दिल में थे. माँ के लाडले भीमराव अब बिना खाना साथ लिए स्कूल आने लगे. 11/12 साल के बच्चे ने निश्चय किया कि खाना मिले या ना मिले, पढ़ाई का नुकसान नहीं होने दिया जाएगा.
हेड मास्टर ब्राह्मण थे, अछूतों के प्रति सामाजिक व्यवहार के सामने विवश थे परंतु भीम को भूखा देख तो उन्हें दया आ गई. उसके लिए दोपहर की रोटी का इंतजाम उन्होंने स्वयं किया.
जब सब बच्चे दोपहर का भोजन करने बैठते तो वे एक कोने में सब्जी भीमराव के सामने रख देते और दूर से ही रोटियां उसके हाथों से फेक देते थे. भीमराव अपनी भूख मिटा लेते थे. दूसरे लड़के जब हेड मास्टर को ऐसा करते देखते तो कानाफूसी करते. वे कहते लगता है, मास्टर का दिमाग खराब हो गया है. ब्राह्मण होते हुए भी महार जाति के लड़के को रोटी बनाकर खिलाते हैं.
भीमराव लड़कों के मुंह से जब ऐसी बातें सुनते, अपने प्रति उनके चेहरों पर और आंखों में घृणा देखते तो सहम जाते. कभी-कभी उन्हें बहुत गुस्सा आता, परंतु वे सब सह जाते.
एक बार उनकी मां ने उनके कान में कहा था, एक बात याद रखना बेटा, हम लोग महार जाति के हैं अछूत हैं. तुम्हें समाज बहुत अपमान सहना पड़ेगा, बड़ी घृणा झेलनी पड़ेगी. इस सबकी परवाह ना करना. किसी से उलझना नहीं. तुम्हें पढ़ना है. बिना पढ़े कोई बड़ा आदमी नहीं बन सकता. जब तुम बड़े आदमी बन जाओ तब समाज के इस गंदी रीति को बदल डालना. यही मेरी इच्छा है.
माँ तो नहीं रही, पर उनके वह शब्द भीमराव के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बन गए. जब जब उन्हें कोई घृणा की नजर से देखता, जब जब कोई उनका अपमान करता, माँ मानो उनके कानों में कह देती, "भड़कना नहीं, सहते जाना है. रुकना नहीं, आगे बढ़ते जाना है. भीमराव वैसा ही करते, अपमान और घृणा सहते सहते उन्हें चुप रहने की आदत पड़ गई. अब कोई कुछ भी कहे, कुछ भी करें, वह चुप रहते और अपने काम में लगे रहते हैं.